आपके जीवन में जब कुछ खट्टे-मीठे अनुभव आयें तब समीक्षा कीजिये कि ये कटु अनुभव दिख् रहे हैं, लेकिन उनके पीछे परमात्मा की कितनी कृपा है, करुणा है ? उस समय शायद पता न चले । आप फरियाद की खाई में और दुःख बढा लेंगे । समीक्षा के अभाव में आप ईश्वर को, भाग्य को, समाज को, अपने पुण्यों को और कर्मों को कोसने लगेंगे । उससे आपकी शक्ति क्षीण होगी । परंतु समीक्षा करने पर आप बिना धन्यवाद के रह नहीं सकते ।
भगवान बुद्ध की एक भिक्षुणी शिष्या थी । उसका नाम था पटाचारा । त्रिपिटक ग्रंथ में उसकी कथा आती है । पटाचारा कुँआरी थी । किसी युवान से उसका मन लग गया । माँ-बाप के न चाहने पर भी उसने उसके साथ शादी कर ली । श्रावस्ती नगरी से बहुत दूर देश में वह अपने पति के साथ रहने लगी ।
कालचक्र घुमता गया । वह दो बच्चों की माता हुई । काफी वर्ष गुजरने पर पटाचारा के मन में हुआ कि कुछ भी हो, आखिर माँ-बाप बूढे हो गये होंगे, अब मैं अपने परिवार के जनों से मिलूँ । उन माँ-बाप को रिझा लूँ… मना लूँ ।
पटाचारा अपने पति और दो बेटों के साथ चली श्रावस्ती नगरी की ओर । आज से २५०० साल पहले की बात है । गाडी मोटरों की सुविधा न थी । लोग पैदल चलते थे । यात्रा करते करते ये लोग घने जंगल से गुजर रहे थे । रात्रि में पति ने शयन किया और साँप ने उसे काटा । पति मर गया । पटाचारा के सिर परमानो एक दुःख का पहाड गिर पडा ।
इतना ही नहीं, रात्रि को तो पति की मृत्यु देख रही है और प्रभात में पुत्र को किसी हिंसक प्राणी ने झपट लिया । वह मौत के घाट उतर गया । अब वह एकलौते बेटे को देख कर मुश्किल से संभल रही है । प्यास के मारे दूसरा बेटा पानी खोजने गया । वह झाड़ियों में उलझ गया और खप गया ।
अब अकेली नारी पटाचारा अपने को जैसे तैसे संभालती हुई, रास्ता काटती हुई, कंकडों पत्थरों पर पैर जमाती हुई, दिल को थामती हुई, मनको समझाती हुई मांँ-बाप के दीदार के लिए भागी जा रही है । वह अबला श्रावस्ती नगरी में पहुँचती है तो खबर सुनती है कि जोरों की आँधी चली उसमें उसका मकान गिर गया और बूढे माँ-बाप उसके नीचे दबकर मर गये । पटाचारा के पैरों तले से मानो धरती खिसक रही है । है तो बडी दुःखद घटना मगर ईश्वर न जाने इस दुःख के पीछे कितना सुख देना चाहता है यह पटाचारा को पता न था ।
संसार का मोह छुडाकर शाश्वत की ओर ले जानेवाली ईश्वर-कृपा न जाने किस व्यक्ति को किस ढंग की व्यवस्था करके उसे उन्नत करना चाहती है ।
पटाचारा के मन में हुआ कि : ‘आखिर यह क्या ? जिस पति के लिये माँ-बाप छोडे उस पतिको साँप ने डँस मारा, वह चल बसा । बेटों को सम्भाला, पाला-पोसा, बडे होंगे तो सुख देंगे यह अरमान किये । एक बेटे को हिंसक पशु उठाकर ले गया । दूसरा बेटा गायब हो गया । इतना सब दुःख सहते सहते माँ-बाप के लिए आयी, वहाँ के झोंके ने मकान गिरा दिया और वे माँ-बाप दब मरे । क्या यही है जीवन ? क्या यही है हमारे मानव जन्म की उपलब्धि ?
हम दुःख में भी परेशान हैं, हम जन्म में भी परेशान हैं, जवानी और बुढापे में भी परेशान हैं और मौत में भी परेशान हैं । क्योंकि परम की कृपा नहीं दीख रही ।हमारा परमात्मा कोई कंगाल नहीं कि हमें एक ही अवस्था में, एक ही शरीर में, एक ही परिस्थिति में रख दे । उसके पास चौरासी चौरासी लाख कपडे हैं अपने बच्चों के लिए और करोडों करोडों अवस्थाएँ हैं । वह हर अवस्था से पार कराता कराता आखिर जीवात्मा को अपने परमात्म-स्वभाव में जगाता है ।
ईश्वरकृपा बरस रही है । हम समीक्षा नहीं करते । प्रतीक्षा उसकी होती है जो अप्राप्त हो और समीक्षा प्राप्त वस्तु की की जाती है । हर अवस्था में उसकी कृपा निहारने से, कृपा की समीक्षा करने से शांति स्वाभाविक आयेगी । ॐ शांति… शांति… शांति…
मीरा और राबिया के जीवन में भी हजार हजार विपत्तियाँ आयीं फिर भी उन्होंने ईश्वर की कृपा का ही अनुभव किया । ईश्वर की कृपी का अनुभव करनेवाले अपने हृदय को हमेशा धन्यवाद, भगवद्भक्ति से भरपूर रखते हैं दोषदर्शन और फरियादी स्वभाव जीवन को नष्ट करता है ।
नरसिंह मेहता की पत्नी की मृत्यु हो गयी और वे गाते हैं :
‘भलुं थयुं भांगी जंजाल, सुखे भजीशुं श्रीगोपाल । ‘अच्छा हुआ, जंजाल, छूट गया । अब सुख से श्रीगोपाल का भजन करेंगे । पुत्र शामलशाह की मृत्यु हुई तब वे कहते हैं :जे गम्युं जगत गुरु देव जगदीश ने, ते तणो खरखरो फोक करवो ।
आपणो चितव्यो अर्थ कंई नव सरे, उदरे व्यर्थ उद्वेग धरवो ।।
‘जगत में जिससे स्नेह था, उसे गुरुदेव जगदीश ने ले लिया । अब मेरी चिन्ता का कोई विषय नहीं रह गया । अंतर में क्यों उद्वेग धारण करना ?
तुकारामजी की पत्नी बडी उग्र स्वभाव वाली और कर्कशा थी । इसके लिए तुकारामजी भगवान का आभार मानते और कहते कि पत्नी के प्रतिकूल होने से उसके जाल में न फँसकर मैं सुगमतापूर्वक परमात्मा को प्राप्त कर सका । एकनाथजी की पत्नी अनुकूल स्वभाव की थी तो उन्होंने प्रभु का आधार इस रूप में माना कि उनकी पत्नी उनके साधन-मार्ग में सहायक बनी । इस प्रकार नरसिंह मेहता ने पत्नी की मृत्यु में, तुकाराम ने प्रतिकूल पत्नी की प्राप्ति में एवं एकनाथजी ने अनुकूल पत्नी की प्राप्ति में परमात्मा के अनुग्रह का ही दर्शन किया । अतः हे मानव ! तू भगवत्कृपा की समीक्षा कर ।
अतः कृपा की प्रतीक्षा न कीजिए, समीक्षा कीजिए । अपमान, हानि और कष्ट देकर भी वह तुम्हारी उन्नति करता है । मान, सफलता देकर भी वह तुम्हारी उन्नति करता है उसे धन्यवाद दिया करो । उसे अपना परम सुहृद माना करो । ‘तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार.. ऐसी भावना से शीघ्र शांति मिलेगी । मन की शांति सामथ्र्य की जननी है ।
पटाचारा की अशांति और मीमांसा दोनों शुरू हुई । वह बुद्ध के पास पहुँची । पटाचारा से बुद्ध ने कहा : ‘‘पटाचारा ! जो कुछ होता है, जीव की उन्नति के लिए, विकास के लिए होता है । तेरे दो पुत्र इस जन्म में तेरे पुत्र थे परंतु न जाने कितनी बार और कितनों के पुत्र हुये और अभी न जाने वे किसकी कोख में होंगे तुझे क्या पता ? तेरा पति इस जन्म में तेरा पति था परंतु करोडों बार न जाने कितनों का पति बना होगा ? पटाचारा ! तू इस जन्म में इस माँ-बाप की बेटी थी, परंतु अगले जन्म के तेरे कौन माँ-बाप हुये होंगे ? कितने माँ-बाप बदल गये होंगे यह तुझे पता नहीं । शायद वह पता दिलाने के लिए परमात्मा ने यह व्यवस्था की हो ।
जगत की नश्वरता समझाते हुये बुद्ध ने पटाचारा को उपदेश दिया । पटाचारा ऐसी भिक्षुणी बनी कि उसने एक बार महिलाओं के बीच प्रवचन किया और उसी एक प्रवचन से प्रभावित होकर पाँच सौ महिलायेंँ साध्वी हो गयीं । कहाँ तो जीवन की इतनी भीषण दुःखद अवस्था और कहाँ बुद्ध का मिलना और वह ऐसी भिक्षुणी हो गयी कि पाँच सौ महिलायेंँ एक साथ भिक्षुणी बन पडी । अभी सत्संग में उसकी चर्चा होती है ।
हम समीक्षा करेंगे तो पता चलेगा कि हर दुःख के पीछे कोई नया सुख छिपा है और सुख के पीछे दुःख छिपा है । हम इतने अनजान हैं कि दुःख के भय से दुःखी होते रहते हैं और सुख में लेपायमान होते रहते हैं । सुख और दुःख की अगर ठीक से समीक्षा करेंगे तो ये सुख और दुःख दोनों हमें जगाने का काम करेंगे ।
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