महुआ वातनाशक और पाष्टिक तत्व वाला




महुआ आदिवासी जनजातियों का कल्प वृक्ष है। मार्च-अप्रेल के माह में महुआ के फूल झड़ते हैं। ग्रामीण महिलाएं टोकनी लेकर भोर में ही महुआ बीनने चली जाती हैं। दोपहर होते तक 5 से 10 किलो महुआ बीन लिया जाता है। महुआ से बनाया हुआ सर्वकालिक, सर्वप्रिय पेय मदिरा ही है, हर आदिवासी गाँव में महुआ की मदिरा मिल जाती है। इसका स्वाद थोड़ा कसैला होता है पर खुशबू सोंधी होती है। चुआई हुई पहली धार की एक कप दारू पसीना लाने के लिए काफी होती है। इसकी डिग्री पानी से नापी जाती है मसलन एक पानी, दो पानी कहकर। महुआ की रोटी भी बनाई जाती है, रोटी स्वादिष्ट बनती है पर रोज नहीं खाई जा सकती। महुआ के लड्डू भी  स्वादिष्ट होेते हैं ।




महुआ बसंत ऋतु का अमृत फल है। महुआ वातनाशक और पाष्टिक तत्व वाला होता है। यदि जोड़ों पर इसका लेपन किया जाय तो सूजन कम होती है और दर्द खत्म होता है। इससे पेट की बीमारियों से मुक्ति मिलती है। कूंची से सूखकर गिरने वाले फूल स्वाद में मधु के जैसा लगता है। इसे आप गरीबों का किशमिश भी कह सकते हैं।  महुआ के ताजे फूलों का रस निकालकर उससे बरिया, ठोकवा, लप्सी जैसे अनेक व्यंजन बनाये जाते हैं। इसके रस से पूरी भी तैयार होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में महुआ जैसे बहुपयोगी वृक्षों की संख्या घटती जा रही है। जहां इसकी लकड़ी को मजबूत एवं चिरस्थायी मानकर दरवाजे, खिड़की में उपयोग होता है वहीं इस समय टपकने वाला पीला फूल कई औषधीय गुण समेटे है। इसके फल को मोइया कहते हैं, जिसका बीज सुखाकर उसमें से तेल निकाला जाता है। जिसका उपयोग खाने में लाभदायक होता है।

महुआ भारतवर्ष के सभी भागों में होता है ।  इसका पेड़ ऊंचा और छतनार होता है। मुझे तो बेहद आकर्षक भी लगा।  इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी चीजें काम में आती है । यह पेड़  बीस- पचीस वर्ष में फूलने और फलने लगता और सैकडों वर्ष तक फूलता-फलता है । इसकी पत्तियां फूलने के पहले फागुन चैत में झड़ जाती हैं । पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है । इसे महुए का कुचियाना कहते हैं । कलियों के बढ़ने पर उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं । महुए का फूल बीस बाइस दिन तक लगातार टपकता है । महुए का फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं । महुए के फूल को पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं । गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है । लोग सुबह जल्दी उठकर महुआ चुन लेते हैं नहीं तो गाय और बकरी इसे चर जाते हैं। महुआ का एक ही अर्थ या कहें उपयोग हमारे दिमाग में बैठा हुआ है कि इससे शराब बनता है।

महुए की शराब को संस्कृत में माध्वी और देसी में ठर्रा कहते हैं । जब तक महुआ गिरता है, तब तक गरीबों का डेरा उसके नीचे रहता है। यह गरीबों का भोजन होता है। खास तौर पर जब बारिश में कुछ और खाने को नहीं होता। गोंड जाति के लोग इसकी पूजा करते हैं। उनके जीवन में महुआ का बहुत महत्व है। पहले महुआ के बहुत पेड़ होते थे। कई जंगल भी। अब खेती के कारण पेड़ काट दिए गए हैं।  वास्तव में यह एक ऐसा पेड़ है जो कि  बहुउपयोगी है और आदिवासियों के जीवन का संबल भी। मधुमास महुआ के फूलने और फलने का होता है, महुआ फूलने पर ॠतुराज बसंत के स्वागत में प्रकृति सज-संवर जाती है, वातावरण में फूलों की गमक छा जाती है, संध्या वेला में फूलों की सुगंध से  वातावरण  सुवासित हो उठता है, प्रकृति अपने अनुपम उपहारों के साथ ॠतुराज का स्वागत करती है। आम्र वृक्षों पर बौर आने लगते हैं, तथा महुआ के वृक्षों से फूल झरने लगते हैं। ग्रामीण अंचल में यह समय महुआ बीनने का होता है। महुआ के रसीले फूल सुबह होते ही वृक्ष की नीचे बिछ जाते हैं। पीले-पीले सुनहरे फूल भारत के आदिवासी अंचल की जीवन रेखा हैं। आदिवासियों का मुख्य पेय एवं खाद्य माना जाता है। महुआ के फूलों की खुशबू मतवाली होती है। सोंधी-सोंधी खुशबू मदमस्त कर जाती है।
महुए की मादक गंध से भालू को नशा हो जाता है, वह इसके फूल खाकर झूमने लगता है। जंगली जानवर भी गर्मी के दिनों में महुआ के फूल खा कर क्षुधा शांत करते हैं। कई बार महुआ बीनने वालों की भिडंत भालू से हो जाती है।

महुआ संग्रहण से ग्रामीणों को नगद राशि मिलती है, यह आदिवासी अंचल के निवासियों की अर्थव्यवस्था का मुख्य घटक है। मधूक वन का जिक्र बंगाल के पाल वंश एवं सेन वंश के अभिलेखों में आता है, अर्थात मधूक व्रृक्ष की महिमा प्राचीन काल में भी रही है। वर्तमान में महुआ से सरकार को अरबों रुपए का राजस्व प्राप्त होता है। अदिवासी परम्परा में जन्म से लेकर मरण तक महुआ का उपयोग किया जाता है। जन्मोत्सव से मृत्योत्सव तक अतिथियों को महुआ रस पान कराया जाता है। अतिथि सत्कार में महुआ की प्रधानता रहती है।  महुआ कि मदिरा पितरों एवं आदिवासी देवताओं को भी अर्पित करने की परम्परा है, इसके लिए महुआ पान से पूर्व धरती पर छींटे मार कर पितरों को अर्पित किया जाता है।
महुआ के फूलों का स्वाद मीठा होता है, फल कड़ुए होते हैं पर पकने पर मीठे हो जाते हैं, इसके फूल में शहद के समान गंध आती है, रसगुल्ले की तरह रस भरा होता है। अधिक मात्रा में महुआ के फूलों का सेवन स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होता, इससे सरदर्द भी हो सकता है, महुआ की तासीर ठंडी समझी जाती है पर यूनानी लोग इसकी तासीर को गर्म समझते हैं। कहते हैं कि महुआ जनित दोष धनिया के सेवन से दूर होते हैं। औषधीय गुणों से भरपूर है। महुआ, वात, पित्त और कफ को शांत करता है, वीर्य धातु को बढ़ाता है और पुष्ट करता है।पेट के वायु जनित विकारों को दूर कर फोड़ों, घावों एवं थकावट को दूर करता है। खून की खराबी, प्यास, स्वांस के रोग, टीबी, कमजोरी, नामर्दी (नपुंसकता) खांसी, बवासीर, अनियमित मासिक धर्म, अपच एवं उदर शूल, गैस के विकार, स्तनों में दुग्ध स्राव एवं निम्न रक्तचाप की बीमारियों को दूर करता है।

वैज्ञानिक मतानुसार इसके फूलों में आवर्त शर्करा 52.6ः, इक्षुशर्करा 2.2ः, सेल्युलोज 2.4ः, अल्व्युमिनाईड 2.2ः, शेष पानी एवं राख होती है। इसमें अल्प मात्रा में कैल्शियम, लौह, पोटास, एन्जाईम्स, अम्ल भी पाए जाते हैं। इसकी गिरियों से में तेल का प्रतिशत 50-55 तक होता है। इसके तेल का उपयोग साबुन बनाने में किया जाता है। घी की तरह जम जाने वाला महुआ (या डोरी का कहलाने वाला) तेल दर्द निवारक होता है और खाद्य तेल की तरह भी इस्तेमाल होता है। मुझे महुआ के फूलों की गमकती सुगंध बहुत भाती है। मदमस्त करने वाली सुगंध महुआ की मदिरा सेवन करने के बजाए अधिक भाती है। मौसम आने पर महुआ के फूलों की माला बनाकर उसकी सुगंध का दिन भर आनंद लिया जा सकता है, फिर अगले दिन प्रातरूकाल नए फूल प्राप्त हो जाते हैं।

ग्रामीण अंचलों में संग्रहित महुआ वर्ष भर प्राप्त होता है, जिस तरह लोग अनाज का संग्रहण करके रखते हैं, उसी तरह महुए को भी संग्रहित करके रखा जाता है तथा वर्ष भर उपयोग एवं उपभोग में लाया जाता है। महुआ की मदिरा रेड वाईन जैसे ही होती है। रेड वाईन में पानी सोडा नहीं मिलाया जाता उसी तरह महुआ में भी पानी सोडा नहीं मिलाया जाता। बसंत के मौसम में महुआ का मद और भी बढ़ जाता है। ऐसे ही महुआ को भारत के आदिवसियों का कल्प वृक्ष नहीं कहा जाता । यह  आदिवासी  संस्कृति का मुख्य अंग भी है। इसके बिना आदिवासी संस्कृति की कल्पना ही नहीं की जा सकती। महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आज के अभिजात शहरी इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं।


जहां महुआ के पेड़ होते हैं, वहां खेती नहीं होती है , क्योंकि वे पेड़ इतने सघन थे कि उन्हें महुआ-वन कहा जा सकता है। हम उसे मौहारि कहते थे। प्रत्येक किसान के पास बीस-पच्चीस महुआ के पेड़ थे। गेहूं की कटाई करने के बाद किसान, महुआ बिनाई से लेकर उसे सुखाकर, पीट-साफ कर कुठिला में रखने के बाद ही गेहूं की मिजाई (गहाई) करता था। महुआ के हिसाब की नाप उन दिनों पैला, कुरई, खांड़ी में हुआ करती थी। अधिक पैदावार व्यक्ति की हैसियत निर्धारित करती थी। पेड़ों के नाम हुआ करते थे, मिठौंहा, चिनिहमा, मिसिरीबा, उसके फल की गुणवत्ता बताते थे। पेड़ के नीचे गिरे पत्तों को जलाकर जमीन साफ कर लेते। ताजा गिरे फूलों को चुन चुनकर डलिया में भरते फिर बडे“  टोपरा में डालकर सिर पर कपडे“ की गोढ़री रखकर टोपरी (झौआ) भर महुआ घर लाते। आंगन लीपा रहता, उसमें बिछा देते, पांच, छरू दिन में सूख जाने पर उसे मोंगरी से पीटकर उसके भीतर के जीरा को निकालते और सहेज कर रख देते। गांव के लोग एक दूसरे की खबर लेने पर आम और महुआ को फसल के आने या न आने को समय और अकाल से जोड़ते थे। चैथे और पांचवे दशक में महुआ ग्रामीण जन-जीवन का आधार होता था। 
प्रत्येक घर में शाम को महुआ के सूखे-फूल को धो-साफ कर चूल्हों में कंडा-उपरी की मंद आंच में पकाने के लिए रख देते थे। रातभर वह पकता,पक कर छुहारे की तरह हो जाता। ठंडा हो जाने पर उसे दही, दूध के साथ खाने का आनन्द अनिर्वचनीय होता। कुछ लोग आधा पकने पर कच्चे आम को छीलकर उसी में पकने के लिए डाल देते। वह खटमिट्ठा स्वाद याद आते ही आज भी मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन न वे पकाने वाली दादियां रहीं न, माताएं अब तो सिर्फ उस मिठास की यादें भर शेष हैं। इसे डोभरी कहते, इसे खाकर पटौंहा में कथरी बिछाकर जेठ के घाम को चुनौती दी जाती थी। लगातार दो महीने सुबह डोभरी खाने पर देह की कान्ति बदल जाती थी। दोपहर को इतनी बढ़िया नींद गांव छोड़ने के बाद कभी नहीं आई। डोभरी का अहसास आज भी जमुहाई ला देता है।



     पेड़ों के नीचे पडे“ ये मोती के दाने टप-टप चूते हैं सुबह देर तक, इन्हें भी सूरज के चढ़ने का इन्तजार रहता है। जो फूल कूंची में अधखिले रह जाते है, रात उन्हें सेती है, दूसरे दिन उनकी बारी होती है। पूरे पेड़ को निहारिये एक भी पत्ता नहीं, सिर्फ टंगे हुए, गिरते हुए फूल। दोपहर और शाम को विश्राम की मुद्रा में हर आने-जाने वाले पर निगाह रखते हैं। कुछ इतने सुकुमार होते हैं कि कूंची में ही सूख जाते हैं, वे सूखकर ही गिरते हैं, उनकी मिठास मधु का पूर्ण आभाष देती है। जब वृक्ष के सारे फूल धरती को अर्पित हो जाते हैं तब ग्रीष्म के सूरज को चुनौती   देती लाल-लाल कोपलों से महुआ, अपना तन और सिर ढकता है। कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष लहक उठता है। नवीन पत्तों की छाया गर्मी की लुआर को धता बताती है। फूल तो झर गये लेकिन वृक्ष का दान अभी शेष है। वे कूंचियां जिनसे फूल झरे थे, महीने डेढ़ महीने बाद गुच्छों में फल बन गए। परिपक्व होने पर किसान इनको तोड़-पीटकर इनके बीज को निकाल-फोड़कर बीजी को सुखाकर इसका तेल बनाते है। रबेदार और स्निग्ध, इस तेल को गांव डोरी के तेल के नाम से जानता है। ऐंड़ी की विबाई, चमडे“ की पनही को कोमल करने देह में लगाने से लेकर खाने के काम आता है। गांव की लाठी कभी इसी तेल को पीकर मजबूत और सुन्दर साथी बनती थी, जिसे सदा संग रखने की नसीहत कवि देते थे।


   महुआ गर्मी के दिनों का नाश्ता तो है ही कभी-कभी पूरा भोजन भी होता है। बरसात के तिथि,त्यौहारों में इसकी बनी मौहरी (पूड़ी) सप्ताह तक कोमल और सुस्वाद बनी रहती है। मात्र आम के आचार के साथ इसे लेकर पूर्ण भोजन की तृप्ति प्राप्त होती है। इस महुए के फूल के आटे का कतरा सिंघाडे“ के फूल को फीका करता है। सूखे महुए के फूल को खपड़ी (गगरी) में भूनकर, हल्का गीला होने पर बाहर निकाल भुने तिल को मिलाकर, दोनों को कूटकर बडे“ लड्डू जैसे लाटा बनाकर रख लेने से वर्षान्त के दिनों में पानी के जून में, नाश्ते के रूप में लेने से जोतइया की सारी थकान एक लाटा और दो लोटा पानी, दूर कर देता है। लाटा को काड़ी में छिलका रहित झूने चने के साथ कांड़कर चूरन बना कर सुबह एक छटांक चूरन और एक गिलास मट्ठा पीकर ताउम्र पेट की बीमारियों को दफा किया जा सकता है।


संसार के किसी भी वृक्ष के फूल के इतने व्यंजन नहीं बन सकते। व्रत त्यौहार में हलछठ के दिन माताएं महुआ की डोभरी खाती है। पूजा-पद्धति में भी महुआ, आम और छिलका के पत्ते ही काम आते हैं। छिलका अकारण अभिशप्त हो गया समाधिस्थ शिव को कामदेव ने पलाश के ओट से ही पंचशर (पुष्पवाण) मारा था। शिव क्रोधाग्नि से काम तो क्षार हुआ ही, बेचारा पलाश भी जल गया। मुझे लगता है। काम के पुष्पवाणों में यदि अकेला मधुक पुष्प होता तो वह किसी की भी समाधि भंग करने का सबसे सुन्दर और असरकारक बाण होता। कामदेव को मधुक पुष्प की शक्ति का पता नहीं था। समाधि भंग की जो मादकता मधुक पुष्प में है वह काम के अन्य वाणों में नहीं। इतना बहुअर्थी वृक्ष कोई है? पता नहीं देवताओं को इस बेचारे मधुक से क्या चिढ़ थी। वृक्ष भले सख्त हो फूल और फल तो अत्यंत कोमल हैं। फिर जब आपने नारियल जैसे सख्त फल को स्वीकारा तो महुए ने कौन सा गुनाह किया था।


महुआ भारतीय वनों का सबसे महत्वपूर्ण वृक्ष है जिसका कारण ना केवल इससे प्राप्त बहुमूल्य लकड़ी है वल्कि इससे प्राप्त स्वादिष्ट और पोषक फूल भी है। यह अधिक वृध्दि करने वाला वृक्ष है। इसकी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके फूलों को संग्रहीत करके लगभग अनिश्चित काल के लिए रखा जा सकता है। बस्तर के ग्रामीण परिदृश्य में महुआ फूल और महुआ वृक्ष का अत्यधिक महत्व है । जिस प्रकार महुआ फूल खाने के काम, पेज बनाने के काम और देसी मदिरा बनाने के काम आता है । उसी प्रकार महुआ (मोहा) वृक्ष से टोरा (फल) प्राप्त होता है जिससे तेल (खाद्य एवं बाह्य उपयोग हेतु) निकला जाता है ! इसके वृक्ष के पत्तो से दोना-पतरी बनाई जाती है जो मांगलिक कार्यो में उपयोग की जाती है । इसके वृक्ष की शाखाओं को विवाह कार्यों में प्रधान रूप से मंडप निर्माण हेतु उपयोग किया जाता है ।


फागुन के आने की आहट पाकर महुआ अपने सारे पत्ते त्याग दिया है । महुआ का विशाल वृक्ष किसी वैधव्य भोगने वाली श्रीहीना, कोमल गात्ररहित, असुन्दर स्त्री की भाँति ठूँठ बनकर खड़ा है । अभी तो नये कोंपल फूटने के भी कोई लक्षण दृष्टिगोचर नही हो रहे हैं । ठूँठ, कभी-कभी जीवनहीन लाश की भी कुशँका उपजा देता है । पर नहीं । महुआ गाछ अभी मरा नहीं है । इसका यह विवर्णमुख होना तो अभिसारिका के श्रृंगार के पहले की तैयारी है । जल्दी ही महुआ हरा-भरा होगा । फूलेगा भी और फलेगा भी । इंतजार है तो बस फागुन का ।
महुआ के फूल सूखकर गिरते नहीं, हरश्रृंगार पुष्प की भाँति झरते भी नहीं, टपकते हैं । हो सकता है इनका शँकुआकार और रससिक्त होना बूँद टपकने का भ्रम उत्पन्न करने का कारक का काम करता हो, इसीलिए ये झरने की बजाय टपकते हैं । इनका जीवन काल अत्यल्प होता है । रात्रि की गुलाबी शीतल निस्तब्धता में यह फूल मंजरियों के गर्भ से प्रस्फुटित होता है और ब्राह्म मुहुर्त में भोर के तारे के उदय होने के साथ टपकना शुरु कर देता है । जितनी मन्जरियों में उस रात ये फूल पुष्ठ हुए होते हैं, अपनी परिपक्वता के हिसाब से क्रमशः धीरे धीरे करके टपकने लगते हैं । यह क्रम ज्यादा देर का नहीं होता । सूर्योदय से लेकर यही कोई तीन चार घंटे में सारा खेल ख़त्म हो जाता है । महुआ रक्तवर्णी वृक्ष है । ललाई इसके रग रग में व्याप्त है । इसके पत्र वैसे तो हरित ही होते है, परन्तु जब ये सूर्य की जीवन दायिनी रश्मियों से अपने मूल से प्राप्त रस को पक्व कर लेते हैं, इनमें लालित्य सहज ही दिखने लगता है । महुआ की मन्ञरियों का रंग हल्का लाल ही होता है, जिनके गर्भ में रससिक्त श्वेत शँकुआकार पुष्प पलते बढ़ते रहते हैं ।


महुआ उष्णकटिबंधीय वृक्ष है जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों और जंगलों में बड़े पैमाने में होता है। इसका वैज्ञानिक नाम मधुका लोंगफोलिआ है। हिन्दी में महुआ, संस्कृत में मधूक, मराठी में माहोचा, गुजराती में महुंडो, बंगाली में मोल, अंग्रेजी में इलुपा ट्री, तमिल में मधुर्क, कन्नड़ में इप्पेमारा नाम से जाना जाता है। यह तेजी से बढ़ने वाला वृक्ष है जो लगभग 20 मीटर की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। इसके पत्ते आमतौर पर वर्ष भर हरे रहते हैं। इसे औषधीय प्रयोग में लाया जाता है। प्राचीन काल में शल्य क्रिया के वक्त रोगी को महुआ रस का पान कराया जाता था। टूटी-फूटी हड्डियाँ जोड़ने के वक्त दर्द कम करने के काम भी आता था। आज भी ग्रामीण अंचल में इसका उपयोग होता है। जचकी में जच्चा को प्रजनन के वक्त दर्द कम करने के लिए महुआ का अर्क पिलाया जाता है।


महुआ भारतवर्ष के सभी भागों में होता है और पहाड़ों पर तीन हजार फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसकी पत्तियाँ पाँच सात अंगुल चैड़ी, दस बारह अंगुल लंबी और दोनों ओर नुकीली होती हैं। पत्तियों का ऊपरी भाग हलके रंग का और पीठ भूरे रंग की होती है। हिमालय की तराईतथा पंजाब के अतिरिक्त सारे उत्तरीय भारत तथा दक्षिण में इसके जंगल पाए जाते हैं जिनमें वह स्वच्छंद रूप से उगता है। पर पंजाब में यह सिवाय बागों के, जहाँ लोग इसे लगाते हैं और कहीं नहीं पाया जाता। इसका पेड़ ऊँचा और छतनार होता है और डालियाँ चारों और फैलती है। यह पेड़ तीस-चालीस हाथ ऊँचा होता है और सब प्रकार की भूमि पर होता है। इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी चीजें काम में आती है।


इसका पेड़ वीस पचीस वर्ष में फूलने और फलने लगता और सैकडों वर्ष तक फूलता फलता है। इसकी पत्तियाँ फूलने के पहले फागुन चैत में झड़ जाती हैं। पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है। इसे महुए का कुचियाना कहते हैं। कलियाँ बढ़ती जाती है और उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं।

यही फूल खाने के काम में आता है और श्महुआश् कहलाता है। महुए का फूल बीस वाइस दिन तक लगातार टपकता है। महुए के फूल में चीनी का प्रायः आधा अंश होता है, इसी से पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं। इसके रस में विशेषता यह होती है कि उसमें रोटियाँ पूरी की भाँति पकाई जा सकती हैं। इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनों रूपों में होता है। हरे महुए के फूल को कुचलकर रस निकालकर पूरियाँ पकाई जाती हैं और पीसकर उसे आटे में मिलाकर रोटियाँ बनाते हैं। जिन्हें श्महुअरीश् कहते हैं। सूखे महुए को भूनकर उसमें पियार, पोस्ते के दाने आदि मिलाकर कूटते हैं। इस रूप में इसे लाटा कहते हैं। इसे भिगोकर और पीसकर आटे में मिलाकर महुअरी बनाई जाती है। हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी खाते हैं। गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है। यह गौंओ, भैसों को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी होती हैं और उनका दूध बढ़ता है। इससे शराब भी खींची जाती है। महुए की शराब को संस्कृत में माध्वी और आजकल के गँवरा   श्ठर्रा कहते हैं। महुए का फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं। इसका फल परवल के आकार का होता है और श्कलेंदीश् कहलाता है। इसे छील उबालकर और बीज निकालकर तरकारी भी बनाई जाता है। इसके बीच में एक बीज होता है जिससे तेल निकलता है।



वैद्यक में महुए के फूल को मधुर, शीतल, धातु- वर्धक तथा दाह, पित्त और बात का नाशक, हृदय को हितकर और भारी लिखा है। इसके फल को शीतल, शुक्रजनक, धातु और बलबंधक, वात, पित्त, तृपा, दाह, श्वास, क्षयी आदि को दूर करनेवाला माना है। छाल रक्तपितनाशक और व्रणशोधक मानी जाती है। इसके तेल को कफ, पित्त और दाहनाशक और सार को भूत-बाधा-निवारक लिखा है। ग्रामीण क्षेत्रों में महुआ जैसे बहुपयोगी वृक्षों की संख्या घटती जा रही है। जहां इसकी लकड़ी को मजबूत एवं चिरस्थायी मानकर दरवाजे, खिड़की में उपयोग होता है वहीं इस समय टपकने वाला पीला फूल कई औषधीय गुण समेटे है। इसके फल को मोइया कहते हैं, जिसका बीज सुखाकर उसमें से तेल निकाला जाता है। जिसका उपयोग खाने में लाभदायक होता है। इसका वर्ष भर उपयोग करने वालों का कहना है कि महुआ का फूल एक कारगर औषधि है। इसका सेवन करने से सायटिका जैसे भयंकर रोग से पूर्ण रूप से छुटकारा मिल जाता है।


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