बैष्णवजन तो तेने रे कहिये, जे पीड पराई जाणे रे ।

★ अपने आसपास में देखें, शायद अपने से कोई ज्यादा दुःखी दीन हो । अपने पास दो रोटियाँ हों और वह बिल्कुल भूखा हो तो एकाध रोटी उसे दे दें । उससे शायद हमें थोडा भूखा रहना पडेगा, मगर वह बाहर की भूख अंदर में तृप्ति देगी |

★ गाँव में कोई गरीब हो, व्यसनी और दुराचारी न हो, दुःखी हो तो उसकी सेवा करना, उसकी सहायता करना, इससे अन्तर्यामी परमात्मा प्रसन्न रहता है ।
अपना पेट भरने के लिए कुत्ता भी पूँछ हिला देता है, इसमें क्या बडी बात है ? कौआ भी काँ-काँ कर लेता है ।

बैष्णवजन तो तेने रे कहिये,
जे पीड पराई जाणे रे ।
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे ।।


★ शंकरजी महाराज दुष्काल के समय में गाँव-गाँव जाकर गरीब कुटुम्बों में अनाज और गुड का वितरण कर रहे थे । वे एक किसान के घर पहुँचे । बारह तेरह साल की लडकी बाहर आयी । उससे पूछा- ‘‘घर में कोई नहीं है ?

★ लडकी बोली – ‘‘मेरी माँ मजदूरी करने खेत में गयी है और मेरे पिता को दो साल हुये स्वर्गवास हो गया है ।
शंकरजी महाराज बोले-‘‘ले बेटा, यह गुड ले ले ।
उनको हुआ, यह विधवा का घर है । दूसरों को देते हैं उससे जरा ज्यादा इनको देना चाहिए ।
मगर वह लडकी कहती है-‘‘हमें नहीं चाहिए ।

★ ‘‘क्यों ?
‘‘मेरी माँ बताती है कि हमने मेहनत न की हो ऐसा किसी का मुफ्त नहीं लेना चाहिए । हराम का खाने से बुद्धि कुण्ठित होकर हलके विचार करती है ।
‘‘तेरी माँ मजदूरी ही करती है और कुछ है तुम्हारे पास ?
‘‘हमारे पास चार बीघा जमीन थी । मगर गाँव में पानी की बहुत कमी थी तो मेरी माँ ने जमीन बेचकर गाँव में पानी का कुँआ खुदवाया, जिससे कि गाँववालों को सुविधा से पानी मिल सके । अब मेरी माँ मेहनत करती है ।हमें गुड नहीं चाहिए ।

★ यह संस्कृति अब भी भारत के गाँवों में है और यही भारत की आध्यात्मिकता के दर्शन कराती है ।
परहित में अपना देने में देर न करें । मगर मुफ्त का, दान का लेने में संकोच करें ।

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