श्रीमद भागवत में एक कहानी है राजा अजामिल की। उस राजा में अनेकों दुर्गुण थे।जब वह अपनी मृत्यु शैया पर पँहुचा तो उसने अपने पुत्र को बुलवाया जिसका नाम 'नारायण' था।और जब राजा ने ईश्वर के नाम का उच्चारण किया तो उसे मुक्ति प्राप्त हुई। यह कहानी लोगों में विश्वास जगाती है कि उनका अतीत कैसा भी क्यों न हो,पछतावा करने या अपराधी महसूस कर समय बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं।यदि तुम अन्तिम क्षण में भी ईश्वर की ओर मुड़ते हो, तो तुम्हारे मुक्त होने की संभावना है।यह कहानी तुम्हे सिखाती है कि अतीत में की गई भूलों के प्रति अपराधबोध से ग्रसित नहीं होना है।
दो तरीके गलतियों से मुक्त होना|
वर्तमान क्षण में होने |
समर्पण |
वर्तमान क्षण
जब तुम मासूम होते हो और वर्तमान क्षण में टिके रहते हो तुम्हे अपनी भूल का अहसास हो जाता है।और ऐसे में तुम पहले से ही उस भूल से बाहर निकल जाते हो। अतीत के बारे में सोचते रहने के बजाय बस जाग जाओ और उसे स्वीकार करो।आगे बढ़ जाओ और दूसरों पर या स्वयं पर दोषारोपण में मत फँसों।दोष देना ठीक वैसे ही है जैसे कि तुम कूड़ादान लेकर बैठे हो और किसी पर फेंकने को तैयार हो।पर वह घूमकर तुम्हारे पास आ जाता है।यह वॉलीबॉल खेलने जैसा है, तुम बॉल फेंकते हो और बॉल फिर से तुम्हारे पास वापिस आ जाती है।और यह खेल चलता रहता है।यदि तुम इस खेल से बाहर निकलना चाहते हो, अपनी भूल स्वीकार करो। सामान्यतया: हम क्या करते हैं कि अपनी भूलों को उचित ठहराते हैं ताकि अपराध का बोध न हो।पर इससे काम नहीं बनता।चाहे जो भी औचित्य तुम दो अपराधबोध टिका रहता है।तुम अपराधबोध का प्रतिरोध करते हो और वह बना रहता है और फिर कहीं अन्तर की गहराई से तुम्हारे व्यवहार को विकृत कर देता है। तुम्हे अपने द्वारा की गई भूलों के लिए अपराधी महसूस करने का पूरा पूरा अधिकार है। पूर्ण रूप से दुखी बन जाओ पूरे एक मिनट,दस मिनट या पच्चीस मिनट के लिए--उससे अधिक नहीं।और फिर तुम उससे बाहर निकल जाओगे।
स्वीकार करो | समर्पण |
भूल को सही साबित करने की बजाय उसे स्वीकार करो।औचित्य सिद्ध करना बहुत सतही है क्योंकि यह अपराधबोध को नहीं हटाता। बल्कि वह तुम्हे अपराध का और भी अधिक बोध कराता है। अपने अपराधबोध के साथ सौ प्रतिशत रहो और वह पीड़ा एक ध्यान की तरह बन जायेगी और तुम्हे तुम्हारे अपराधबोध से भारमुक्त करेगी। भूल करने वाले एक व्यक्ति से तुम कैसे पेश आते हो? उस व्यक्ति को उसकी भूल के बारे में मत बताओ जो कि वह पहले से ही जानता है और न ही उसे अपराधी,रक्षात्मक या विद्वेषपूर्ण महसूस कराओ। क्योंकि इससे और अधिक दूरी कायम होगी। तुम केवल उसी व्यक्ति को उसकी भूल की ओर ध्यान दिलाओ जो कि उससे अनभिज्ञ है पर जानने को इच्छुक होगा।बहुधा लोगों को पता होता है कि उन्होने क्या भूल की है पर वे नहीं चाहते कि कोई उनका ध्यान इस ओर दिलाये।किसी व्यक्ति की भूलों की तरफ ऊँगली उठाने से पहले देखो कि क्या तुम्हारी टिप्पणी स्थिति को,तालमेल को बेहतर बनाने में मदद करेगी,प्रेम का पोषण करेगी।
आत्मा का उत्थान
दूसरों की भूलों के पीछे अभिप्राय मत देखो। जब कोई कुछ ग़लत करता है तो अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा उसने जानबूझकर किया। परंतु एक विशाल दृष्टिकोण से देखने पर हम पाते हैं कि एक अपराधी वस्तुत: स्वयं एक शिकार भी है। हो सकता है वे अशिक्षा,अज्ञान, अत्याधिक तनाव या संकीर्ण मनोवृत्ति का शिकार हों ।और इनके रहते किसी से भूल हो सकती है।
यदि एक प्रबुद्ध व्यक्ति दूसरों में ग़लतियाँ देखता है तो करूणा के साथ उन्हे उन भूलों से उबरने में सहायता करता है। परंतु एक मूर्ख दूसरों की भूलों पर खुश होता है और सारे संसार के समक्ष उसकी सगर्व घोषणा करता है। एक बुद्धिमान व्यक्ति सदैव दूसरों की प्रशंसा करता है। आत्मा का उत्थान करना विवेक है। जब तुम केन्द्रित होते हो तुम हमेशा अपने चारों ओर सभी का उत्थान करने को तत्पर रहते हो। अपने मन को सहेजो।जब मन स्थापित होता है तुम चाहो तो भी गलत नहीं कर सकते। आत्मज्ञान से भय,क्रोध,अपराधबोध,अवसाद जैसी सभी नकारात्मक भावनाएँ तिरोहित हो जाती हैं।
दो तरीके गलतियों से मुक्त होना|
वर्तमान क्षण में होने |
समर्पण |
वर्तमान क्षण
जब तुम मासूम होते हो और वर्तमान क्षण में टिके रहते हो तुम्हे अपनी भूल का अहसास हो जाता है।और ऐसे में तुम पहले से ही उस भूल से बाहर निकल जाते हो। अतीत के बारे में सोचते रहने के बजाय बस जाग जाओ और उसे स्वीकार करो।आगे बढ़ जाओ और दूसरों पर या स्वयं पर दोषारोपण में मत फँसों।दोष देना ठीक वैसे ही है जैसे कि तुम कूड़ादान लेकर बैठे हो और किसी पर फेंकने को तैयार हो।पर वह घूमकर तुम्हारे पास आ जाता है।यह वॉलीबॉल खेलने जैसा है, तुम बॉल फेंकते हो और बॉल फिर से तुम्हारे पास वापिस आ जाती है।और यह खेल चलता रहता है।यदि तुम इस खेल से बाहर निकलना चाहते हो, अपनी भूल स्वीकार करो। सामान्यतया: हम क्या करते हैं कि अपनी भूलों को उचित ठहराते हैं ताकि अपराध का बोध न हो।पर इससे काम नहीं बनता।चाहे जो भी औचित्य तुम दो अपराधबोध टिका रहता है।तुम अपराधबोध का प्रतिरोध करते हो और वह बना रहता है और फिर कहीं अन्तर की गहराई से तुम्हारे व्यवहार को विकृत कर देता है। तुम्हे अपने द्वारा की गई भूलों के लिए अपराधी महसूस करने का पूरा पूरा अधिकार है। पूर्ण रूप से दुखी बन जाओ पूरे एक मिनट,दस मिनट या पच्चीस मिनट के लिए--उससे अधिक नहीं।और फिर तुम उससे बाहर निकल जाओगे।
स्वीकार करो | समर्पण |
भूल को सही साबित करने की बजाय उसे स्वीकार करो।औचित्य सिद्ध करना बहुत सतही है क्योंकि यह अपराधबोध को नहीं हटाता। बल्कि वह तुम्हे अपराध का और भी अधिक बोध कराता है। अपने अपराधबोध के साथ सौ प्रतिशत रहो और वह पीड़ा एक ध्यान की तरह बन जायेगी और तुम्हे तुम्हारे अपराधबोध से भारमुक्त करेगी। भूल करने वाले एक व्यक्ति से तुम कैसे पेश आते हो? उस व्यक्ति को उसकी भूल के बारे में मत बताओ जो कि वह पहले से ही जानता है और न ही उसे अपराधी,रक्षात्मक या विद्वेषपूर्ण महसूस कराओ। क्योंकि इससे और अधिक दूरी कायम होगी। तुम केवल उसी व्यक्ति को उसकी भूल की ओर ध्यान दिलाओ जो कि उससे अनभिज्ञ है पर जानने को इच्छुक होगा।बहुधा लोगों को पता होता है कि उन्होने क्या भूल की है पर वे नहीं चाहते कि कोई उनका ध्यान इस ओर दिलाये।किसी व्यक्ति की भूलों की तरफ ऊँगली उठाने से पहले देखो कि क्या तुम्हारी टिप्पणी स्थिति को,तालमेल को बेहतर बनाने में मदद करेगी,प्रेम का पोषण करेगी।
आत्मा का उत्थान
दूसरों की भूलों के पीछे अभिप्राय मत देखो। जब कोई कुछ ग़लत करता है तो अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा उसने जानबूझकर किया। परंतु एक विशाल दृष्टिकोण से देखने पर हम पाते हैं कि एक अपराधी वस्तुत: स्वयं एक शिकार भी है। हो सकता है वे अशिक्षा,अज्ञान, अत्याधिक तनाव या संकीर्ण मनोवृत्ति का शिकार हों ।और इनके रहते किसी से भूल हो सकती है।
यदि एक प्रबुद्ध व्यक्ति दूसरों में ग़लतियाँ देखता है तो करूणा के साथ उन्हे उन भूलों से उबरने में सहायता करता है। परंतु एक मूर्ख दूसरों की भूलों पर खुश होता है और सारे संसार के समक्ष उसकी सगर्व घोषणा करता है। एक बुद्धिमान व्यक्ति सदैव दूसरों की प्रशंसा करता है। आत्मा का उत्थान करना विवेक है। जब तुम केन्द्रित होते हो तुम हमेशा अपने चारों ओर सभी का उत्थान करने को तत्पर रहते हो। अपने मन को सहेजो।जब मन स्थापित होता है तुम चाहो तो भी गलत नहीं कर सकते। आत्मज्ञान से भय,क्रोध,अपराधबोध,अवसाद जैसी सभी नकारात्मक भावनाएँ तिरोहित हो जाती हैं।
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